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अब सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है कि १९७६ में इमरजेंसी पर उसके एक फैसले से देश की बड़ी आबादी के मूलभूत अधिकारों का हनन हुआ था. जस्टिस आफताब आलम और जस्टिस अशोक कुमार गांगुली ने एक फैसले में कहा है कि एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला केस (1976) में इमरजेंसी के दौरान मूलभूत अधिकार तात्कालिक तौर पर खत्म करने का जो फैसला पांच सदस्यों वाली संविधान पीठ ने कायम रखा, वह गलत था. जस्टिस गांगुली ने कहा, इसमें कोई संदेह नहीं कि कोर्ट के बहुमत से लिए गए उस फैसले से देश की बड़ी आबादी के मूलभूत अधिकारों का हनन हुआ था. बहुमत के उस फैसले में जस्टिस खन्ना ने अलग फैसला देते हुए कहा था कि हाई कोर्ट बंदी प्रत्यक्षीकरण पर रिट जारी कर सकता है और यह संविधान का अभिन्न अंग है। संविधान में किसी अथॉरिटी को यह अधिकार नहीं है कि इमरजेंसी के दौरान हाई कोर्ट के इस अधिकार को सस्पेंड कर दे। बाद में जस्टिस खन्ना की उस अलग राय के अनुसार संविधान के 44वें संशोधन के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता को इमरजेंसी के दौरान सस्पेंशन के दायरे से अलग कर दिया गया।
यह सही है कि बाद में इंदिरा गाँधी फिर प्रधान मंत्री बन गईं, पर उनका भारत राष्ट्र, भारतीय लोकतंत्र और भारतीय नागरिकों के खिलाफ इमरजेंसी के अपमानजनक हथियार का प्रयोग करने का अपराध इतिहास का एक ऐसा हिस्सा है जिसे मिटाया नहीं जा सकता. जब कभी भी इंदिरा गाँधी का नाम लिया जाएगा, उस के साथ इमरजेंसी का नाम भी लिया जाएगा. क्या ऐसे व्यक्ति को भारत का रत्न कहा जाना चाहिए? कभी नहीं. इंदिरा गाँधी को दिया गया भारत रत्न वापस लिया जाना चाहिए.
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